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Tuesday, May 10, 2011

ड्रग्स का जोड़तोड़

माना जाता है कि दुनिया के 3 से 4 प्रतिशत यानी लगभग 14 करोड़ लोग सीधे तौर पर कैनाबीस नामक ड्रग्स का सेवन करते हैं। कैनाबीस दुनिया में सबसे ज्यादा उपयोग करने वाला मादक पदार्थ है। इसके अलावा हेरोइन शहरी युवाओं में सबसे ज्यादा प्रचलित होता जा रहा है। कैनाबीस सबसे ज्यादा खपत न्यूयार्क, लंदन, मियामी, नैरोबी, मॉस्को, तजाकिस्तान और वियतनाम में होती है। हेरोइन का सबसे ज्यादा उपयोग यूरोप और यूरेशिया में होता है। इसी के कारण न्यूयार्क में 22,300 ड्रग्स के छोटे-मोटे अपराधी जेल में हैं। ड्रग के बढ़ते कारोबार का पता इस बात से लगाया जा सकता है कि 1998 में न्यूयॉर्क के 40 हजार युवाओं पर अदालत में केस चला। अमेरिकी नेवी के अधिकारियों ने सन 2000 में लगभग 55 लाख नशीली दवाओं की गोलियों को सील किया। लब्बोलुबाब यह कि विश्व की बढ़ती जनसंख्या, हताशा और युवाओं के बूते यह कारोबार तेजी से फल-फूल रहा है।

ड्रग्स का उत्पादन मुख्यत: हॉलैंड, मोरक्को, नीदरलैंड, कोलम्बिया, पेरू, बोलीविया, गोल्डन ट्राइंगल (थाइलैंड, लाओस, म्यांमार) और गोल्डन क्रेसेंट (अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान)आदि में प्रमुखता से होता है। नीदरलैंड में मुख्यत: एम्फेटामिंस और ईस्टेसी आदि सेंथेटिक ड्रग्स का उत्पादन होता है। इसके अलावा इसका उत्पादन पोलैंड और डच में भी होता है। इसका निर्यात अमेरिका में तेजी से बढ़ा है। नीदरलैंड मारिजुआना का भी बड़े पैमाने पर उत्पादन करता है। जिसे पुलिस ने कुछ ही स्थानों पर खुले बाजार में बेचने की अनुमति दी है। अफगानिस्तान दुनिया में सबसे ज्यादा ड्रग्स का उत्पादन करता है। इससे सटे देशों और इलाकों में 20 किलो के बंचों में हेरोइन अवैध रूप से निर्यात की जाती है। इसमें सबसे ज्यादा महिलाओं का इस्तेमाल किया जाता है। ईरान से सबसे ज्यादा ड्रग्स तुर्की में सप्लाई किया जाता है। इनमें सबसे बड़ा योगदान तालिबान, बोलीविया और बर्मा का है।

ड्रग्स की तस्करी मुख्यत: चीन, पश्चिम एशिया, ईरान, नाईजीरिया, हैती, बानकान्स, मैक्सिको आदि जगहों से होती है। ईरान के आसपास के इलाके से भी अधिक मात्रा में ड्रग्स की तस्करी होती है। अफगानिस्तान, अलबानिया, अंगोला, अर्जेंटीना, अरमेनिया, आॅस्ट्रेलिया, आॅस्ट्रिया, अजरबेजान, बांग्लादेश, बरबाडोस, बेलारूस, बेल्जियम, बोल्विया, बोस्निया, ब्राजील, ब्रिटिश आइसलैंड, ब्रूनेई, बर्मा, कम्बोडिया, कनाडा, कायमान आइसलैंड, चिली, चीन, कोलम्बिया, कांगो, कोस्टा रिका, क्यूबा, साइप्रस, मिस्र, ईस्टोनिया, इथोपिया, फ्रांस, जाजिया, जर्मनी, घाना, ग्रीक, गुयाना, हैती, हांगकांग, इजराइल इटली लीबिया, मैक्सिको, पाकिस्तान, पेरू रूस, अमेरिका आदि। इनमें सबसे बड़ा हिस्सा मैक्सिको, चीन, हैती, ईरान, हांगकांग, नाइजीरिया, यूरोप, अमेजान आदि का है। सन 1999 में 57 हजार लोगों को चीन में तस्करी करते पकड़ा गया। जिसमें से मात्र 100 लोगों को सजा मिली।

कैनाबीस- यह सामान्य भांग का पौधा है। इसका उपयोग अमेरिका और कनाडा आदि देशों में बैन है। कैनाबीस प्रयोग नीदरलैंड आदि देशों में खूब होता है।
तंबाकू- इसका अमेरिका, भारत और नेपाल आदि देशो में बड़ा कारोबार है। इसके अत्याधिक सेवन से मनुष्य कैंसर जैसी बीमारी का शिकार हो जाता है। भूटान में कभी इसका मुक्त व्यापार हुआ करता था, जो दिसंबर 2004 में बैन हो गया, जिससे इसका काले बाजार में भारी इजाफा हुआ।
हेरोइन- दुनिया में सबसे ज्यादा हेरोइन दक्षिण एशिया में होती है। अफगानिस्तान दुनिया का सबसे बड़ा हेरोइन निर्यातक देश है। 2007 में वह विश्व की लगभग 93% हेरोइन का निर्यात करता था। जिसकी कीमत उस समय 64 बिलियन डॉलर के लगभग आंकी गई थी। अफगानिस्तान के बाद मैक्सिको का नाम आता है। 1930-1970 में मुख्यत: फ्रांस के रास्ते अमेरिका में हेरोइन की सप्लाई होती थी। वियतनाम वार के दौरान यह शहीद अमेरिकी सैनिकों के ताबूत में अमेरिका पहुंचाई जाती थी।

मेथाम्फेटामाइन- यह सामान्यत: क्रिस्टल मेथ, मेथ, और आइस नामों से बाजार में ज्यादा प्रचलित है। साऊथ अफ्रीका के बाजारों में इसे टिक-टिक के नाम से भी जाना जाता है। आसानी से बन जाने से इसका सेवन कम उम्र के बच्चों में भी देखा जाता है।
टेमाजेपाम- यह अवैध रूप से लैबों में बनाया जाता है। यह पूर्वी यूरोप में ज्यादा प्रचिलित है। यह कई रसायनों जैसे जियाजेपाम, आॅक्साजेपाम और लोराजेपाम को मिलाकर बनाया जाता है। इसको तैयार करने वाली लैबों को रूस, यूक्रेन, क्रेच रिपब्लिक, लातविया और बेलारूस में कई जगहों पर बंद कर दिया गया है। ब्रिटेन में यह प्रिस्क्रिप्शन ड्रग है। यह फिनलैंड, नीदरलैंड, पोलैंड चेक रिपब्लिक, हंगरी, भारत, चीन और दक्षिण एशिया के कुछ प्रांतों में भी प्रयोग की जाती है। स्वीडेन में बढ़ती दुर्घटनाओं के कारण पूरी तरह से पूरी तरह से बैन है। इसके अलावा कोकीन, निमेटाजेपाम, एमडीएमए, और एम्फेटामाइंस आदि ऐसे ड्रग्स हैं, जो तेजी से नशे के लिए प्रयोग किए जाते रहे हैं।

ड्रग्स का कारोबार अवैध तरीके से तेजी से तब फला फूला जब इस पर प्रतिबंध लगाए गए। पहला एंग्लोचीन वार-1839-42 जिसे पहली अफीम वार के नाम से भी जाना जाता है।
यह ब्रिटेन और क्विंग डायनेस्टी आॅफ चीन के बीच हुआ। 18 मार्च को शुरू हुआ यह युद्ध दोनों देशों के बीच आई रिश्तों की दरार, व्यापारिक संबंधों में आई कटुता से हुआ। चीन ने अफीम को अपने देश में बढ़ते नशे के कारण बैन कर दिया और ब्रिटेन इसके खिलाफ था। अफीम का व्यापार उस समय काफी फायदे का सौदा था। कहा जाता है कि उस दौरन चीन में लगभग 20 लाख लोग इसके आदी थे। 1920 के दौरान जब कई देशों में इस पर प्रतिबंध लगाना शूरू किया तो इसके कारोबार के काले रास्ते खुलने लगे। यहीं से आधुनिक चीन की शुरुआत होती है। चीन में 2000 में 6 लाख 80 हजार ड्रग एक्डिटों की संख्या थी। जो प्रति वर्ष 10 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। सरकार ने उपायों के लिए देश में दो सालों में 742 सेंटर्स की स्थापना की है।

नशे के सौदागर

जोआकिन गुजमान या एल शापो गुजमैन उर्फ शार्टी, मैक्सिको का नशीले पदार्थों का सबसे शक्तिशाली तस्कर है। वर्ष 2003 में अपने प्रतिद्वंद्वी ओसीयल कार्डेंस के मारे जाने के बाद शार्टी मैक्सिको में मादक द्रव्यों की तस्करी का शीर्ष सरगना हो गया। 5 फीट 6 इंच का यह व्यक्ति सिनालोआ नामक ड्रग तस्कर संगठन का सरगना है। यह टनों कोकीन कोलंबिया से मैक्सिको के सहारे अमेरिका में भेजता है। जोआकिन कानून और प्रशासन से गठजोड़ के कारण सुरक्षा एजेंसियों से अबतक आंख मिचोली करता आ रहा है।

52 वर्षीय दाऊद इब्राहिम के आईएसआई और अलकायदा से नजदीकी संबंध हैं। 15 लाख का इनामी भारत, यमन और पाक के पासपोर्ट पर अवैध यात्राएं करता है। हथियारों, मादक पदार्थों की तस्करी, जमीन का फर्जीवाड़ा, हत्या सहित विभिन्न अपराध और 5,000 संगठित अपराधियों के नेटवर्क का सरगना है। पूरी दुनिया में उसका आॅर्गेनाइजेशन डी कंपनी के नाम से जाना जाता है। 1993 के मुंबई धमाके का यह आरोपी 257 की लोगों की मौत का प्रत्यक्ष जिम्मेदार है। बाकी इसके खुद के किए या करवाए कितने लोगों की जानें गई इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है।

सेमीयन मोगीलेविच रूसी माफियाओं में सबसे ऊपर है। इसे भारी टैक्स चोरी के आरोप में 2008 में रूस से गिरफ्तार किया गया था। यूक्रेन में जन्मे सेमीयन को 2009 में हिरासत से छोड़ दिया गया था। मोगीलेविच अमेरिका में भी मोस्ट वांटेड की सूची में सबसे ऊपर है, जिसने 150 मिलियन डॉलर का शेयर घोटाला किया था। यूएस, यूरोपियन कानून और एजेंसियों के अनुसार यह विश्व के सबसे खतरनाक गुंडों में से एक है। सुरक्षा एजेंसियों की नाक में दम कर चुका सेमीयन कभी एक जगह नहीं टिकता, इससे पुलिस को खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।

मैटिओ मेसिना डेनारो कोसा नोस्ट्रा इटली का मोस्ट वॉन्टेड है। मैटिओ को डियाबोलिक नाम से भी जाना जाता है। यह अपनी फास्ट लाइफ स्टाइल के लिए हमेशा सुखियों में रहता है। मैटिओ मेसिना के कभी एक जगह लंबे समय तक न रुकने के कारण पुलिस और सुरक्षा एजेंसियां इसे पकड़ने में नाकाम रहीं। इटली समेत अरब देशों और अमेरिका, ब्रिटेन में भी इसके अवैध कारोबार हंै। अंतर्राष्ट्रीय माफियाओं से इसके संबंधों के कई सुबूत मिले हैं और गाहे-बगाहे इसके बारे में अफवाहें भी उड़ती हैं कि यह फिल्म उद्योग में सक्रिय हो रहा है।

एलिम्जान तोखताखोउनोव तस्करी, सट्टेबाजी और ड्रग डिस्ट्रीब्यूशन का दूसरा नाम है। एलिम्जान उज्बेकिस्तान का सबसे खतरनाक माफिया है। जो उज्बेक ही नहीं पूरे यूरोप में कुख्यात है। यह एशिया में तैवानचिक नाम से भी जाना जाता है। अमेरिका के अनुसार वह यूरोपियन आॅर्गेनाइज्ड क्राइम का मास्टर है, जो मुख्यत: ड्रग डिस्ट्रब्यूसन, हथियारों और गाड़ियों की तस्करी का काम करता है। उस पर 2002 के ओलम्पिक खेलों के जजों को रिश्वत देने का भी आरोप है। उसने अपने मनपसंद खिलाड़ियों को ज्यादा अंक दिलाने के लिए सभी तरह के प्रयास किए।

फेलिसिएन काबूगा रवांडा में जाति संघारक के रूप में कुख्यात है। यह नरसंघारों में हथियार सप्लाई और अपने रेडियो स्टेशन से जनता को उकसाने का भी काम करता है। यह इंटरनेशनल क्रिमिनल ट्रिब्युनल फॉर रवांडा में 1949 के जेनेवा कावेंसन के जघन्य अपराधों की सूची में शामिल है। इसमें प्राय: वही लोग शामिल किए जाते हैं, जो मुख्यत: मानवता के विरोध और नरसंघार का काम करते हैं। इस पर 1994 में रवांडा के 8 लाख लोगों को 100 दिन तक चले आतंक में मारने का गंभीर आरोप है। अंतर्राष्ट्रीय खुफिया एजेंसियों की माने, तो काबूगा कीनिया में छुपा हुआ है।

कहने को तो जोसेफ कोन्ए युगांडा का गोरिल्ला नेता है। जिसने लॉर्ड्स रजिस्टेंसी आर्मी नेतृत्व कर सत्ता में भारी हस्तक्षेप किया। उसने थिओरेटिक सरकार को सत्ता में लाने के लिए हिंसक रास्ता अपनाया। अब उसकी काली छाया डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आॅफ कांगो पर भी है। इसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने ही उसे हथियारों के धंधे की ओर धकेल दिया है। अंतर्राष्ट्रीय अपराध कोर्ट ने उस पर मानवता और युद्ध अपराध के 33 आरोप लगाए हैं। शातिर और कूटनीति का माहिर कोन्ए बड़ी राजनीतिक पहुंच होने के कारण सलाखों से दूर है।

विलियम माइकल बल्गर, जो अमेरिका के मासचुसेट स्टेट से सीनेट के सदस्य थे, का बड़ा भाई जेम्स हवीटे बल्गर विंटर हिल गैंग का सदस्य है। यह गैंग बोस्टन में ड्रग और उससे जुड़े अपराधों को संचालित करता है। इसके अलावा इस पर 19 लोगों के खून का आरोप है। एफबीआई को काफी अर्से से इसकी तलाश थी। इसके पास एक अनुमान के मुताबिक 30-50 मिलियन डॉलर का खजाना है। हाल ही में मारे गए आतंक के सरगना ओसामा पर 125 करोड़ रुपये के इनाम के विपरीत, इस पर 20 लाख रुपये का इनाम था। अमेरिकी मूल का यह अपराधी सलाखों के बाहर है।

ओमिड निनो ताहविली कनाडा में हो रहे अपराध का बड़ा सरगना है। यह परसियन समूह का प्रमुख है, और इसके अपराध जगत के कई अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे ट्रिआड्स और अलकायदा आदि से संबंध हैं। यह ड्रग समेत कई संगठित अपराधों से जुड़ा है। ताहलिवी की खासियत यह है कि यह कभी भी अपना नाम सीधे तौर पर अपराध में सामने नहीं आने देता है। यह कहां पाया जाता है, क्या खाता है, कहां से आता है? इन सवालों के जवाब इसके खास लोगों के पास भी नहीं होते। तकनीक और तेजी के जरिए यह अंतर्राष्ट्रीय अपराध जगह में खास जगह रखता है।

अयमान-अल-जवाहिरी, पेशे से आंखों के शल्य चिकित्सक ने ‘मिस्र इस्लामी जिहाद’ नामक आतंकवादी संगठन की स्थापना की। जून 1951 में मिस्र के कैरियो में मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मा जवाहिरी 11 सितंबर के हमलों के बाद से भूमिगत है। उसे अरबी, अंग्रेजी और फ्रेंच आदि भाषाएं अच्छी तरह आती हैं। जवाहिरी को ओसामा का दाहिना हाथ माना जाता है, और वह लादेन की जगह भी ले सकता है। जवाहिरी-ओसामा की दोस्ती 80 के दशक में हुई, जब उसने सोवियत और अफगानिस्तान की लड़ाई के दौरान लादेन का इलाज किया। ओसामा के बाद अब वह आतंक का सबसे बड़ा नाम है।

नशे की कहानी आंकड़ों की जुबानी

680000
सन् 2000 में जनसंख्या की दृष्टि से दुनिया के सबसे बड़े देश चीन में ड्रग एडिक्टों की संख्या थी।
232500
हेक्टेयर जमीन पर होती है दुनियाभर में कोकीन की खेती। विश्व में सबसे ज्यादा कोकीन की खेती कोलंबिया में होती है।
157000
हेक्टेयर अफगानी जमीन पर उगाया जाता है अफीम यानी पॉपी। यह दुनिया में सबसे ज्यादा है। यह तालिबान को आर्थिक मदद दिलाने का सबसे बड़ा जरिया है।
8400
8,400 मीट्रिक टन विश्व भर में अफीम का उत्पादन होता है। इसका 90 प्रतिशत हिस्सा दक्षिण एशिया में होता है।
6900
हेक्टेयर जमीन पर मैक्सिको में अफीम की खेती होती है। 55 मीट्रिक टन ओपियम से साढ़े छह मीट्रिक टन हेरोइन बनती है।
1000
मीट्रिक टन हेरोइन का उत्पादन प्रति वर्ष हो सकता है अगर सारी ओपियम को प्रॉसेस किया जाए।
400
बिलियन यूएस डॉलर। विश्व ड्रग रिपोर्ट यूएनओडीसी के अनुसार 1997 में पूरी दुनिया में, इतनी राशि का ड्रग्स कारोबार हुआ ।
210
मीट्रिक टन कोकीन उत्पादित करने वाला पेरू दुनिया में दूसरे नंबर का कोकीन उत्पादक देश है।
07
बिलियन यूरो के ड्रग्स की तस्करी हुई ब्रिटेन में सन 2007 में। यह कुल तस्करी कारोबार का महज 1 प्रतिशत है।

नशे और हथियारों की गिरफ्त में दुनिया

बीते सप्ताह में जब आतंक के सबसे बड़े नाम के मारे जाने की खबरें आ रही थीं, ठीक उसी वक्त मैक्सिको में अमेरिका के राजदूत अपने पद से इस्तीफे की इबारत लिख रहे थे। यह इसलिए कि विकिलीक्स के एक हालिया खुलासे में अमेरिकी राजदूत कार्लोस पास्कल ने ड्रग माफिया के खिलाफ मैक्सिको के संघर्ष की आलोचना की थी। अमेरिकी सीनेट के बढ़ते दबाव के बीच विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने बेहद अनिच्छा से कार्लोस का इस्तीफा स्वीकार कर लिया। इस घटना के बाद अमेरिका और मैक्सिको के रिश्ते और ज्यादा तल्ख हो गए हैं। मैक्सिको के राष्ट्रपति फिलिप कैल्ड्रन ने तो अपने सार्वजनिक बयान में यह तक कह दिया कि ड्रग माफिया का सबसे बड़ा संरक्षक अमेरिका है। यहां यह बता देना ठीक होगा कि मैक्सिको बीते एक दशक से ड्रग और अवैध हथियारों का अड्डा बना हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय माफिया सरगना की ज्यादतर मीटिंग बीते एक दशक में मैक्सिको में ही हुर्इं और आलम यह है कि मैक्सिको की सड़कों पर आए दिन माफिया वार की छींटे पड़े दिखाई देते हैं। पाठकों को याद ही होगा जब बीते साल सितंबर में सुरक्षा बलों ने 41 बंदूकधारी ड्रग माफिया मारे थे। यह किसी देश की संगठित अपराध के खिलाफ सबसे बड़ी कामयाबी थी। हालांकि मैक्सिको देर से जागा है और इससे पहले मैक्सिको के संगठित ड्रग और हथियारों के कारोबार ने पूरी दुनिया में अपना जाल फैला लिया है। मैक्सिको के सुरक्षा बलों की मानें, तो उनके देश में भी तामौलिप्स और न्येवो लियोन प्रांत ड्रग कारोबारियों का सबसे बड़ा अड्डा है। वे पशु फार्म और गोदामों की आड़ में हथियार छुपाते हैं और हेरोइन, मारिजुआना व कोकीन की बड़ी खेपें इधर से उधर करते हैं। ड्रग्स के फैलते अंतर्राष्ट्रीय कारोबार, आतंकवाद और राजनीतिक अर्थव्यवस्था से उसके संबंधों की पड़ताल कर रहे हैं हरि ओम वर्मा...
माफिया के बढ़ता जाल
आतंक के खिलाफ अमेरिका ने अपनी लड़ाई का मैदान जिस पश्चिम एशिया को बना रखा है, वह धीरे-धीरे नशे के कारोबार का भी केंद्र बनता जा रहा है। यह अचानक नहीं है कि पश्चिम एशिया में ड्रग माफिया की गतिविधियां बढ़ रही हैं। एक तरफ मैक्सिको सरकार और ड्रग माफिया के बीच लंबी लड़ाई में नशे के कारोबारी मुश्किल में हैं, वहीं पश्चिम एशिया की राजनीतिक अस्थिरता उनके लिए लाभ दायक है। यही कारण है कि मैक्सिको जैसे देशों के बजाए नशे के कारोबारी भविष्य के अड्डे के तौर पर पश्चिम एशिया में अपनी पकड़ मजबूत कर रहे हैं।
बताते चलें कि युद्ध हमेशा से अंतर्राष्ट्रीय माफिया के लिए मुफीद साबित हुए हैं। राजनीतिक अस्थिरता के दौर में सरकार विरोधी और महत्वकांक्षी राजनायिकों समेत विभिन्न तबकों के सहारे ड्रग माफिया पहले अपने लिए सुरक्षित ठिकाना खोजते हैं और धीरे-धीरे नशे की गिरफ्त को मजबूत करते हुए ताकत बढ़ते हैं। इस संजाल को समझने के लिए संगठित अपराध के इतिहास को देखना दिलचस्प है। आज ड्रग माफिया बड़े शहरों और बंदरगाहों के इर्द-गिर्द अपना डेरा जमाते हैं, इसके पहले ऐसा नहीं था। संगठित अपराध की शुरुआत में विभिन्न छोटे कस्बों और गांवों में ड्रग का कारोबार संचालित किया जाता था। हथियारों और नशीली दवाओं के व्यापार से मजबूती हासिल करने वाला माफिया समुदाय बीते दौर में कॉन्ट्रेक्ट किलिंग, धमकी, हफ्ता वसूली, मानव तस्करी, वेश्यावृत्ति जैसे काम करता था, अब ये पिछड़े हुए काम माने जाते हैं। संगठित अपराध की शुरुआत इटली के माफिया से मानी जाती है। 1800 के आसपास पुलिस की ताकत से मुकाबला करने के लिए इटली में कालाधंधा करने वाले लोग एकजुट हुए और उन्होंने अपने व्यापक हितों के तहत कुछ नियम बनाए, जिनमें सभी के कामों का बंटवारा और झगड़े के हालात में मिलजुलकर फैसला करना शामिल था। यह संगठित अपराध की शुरुआत का दौर माना जाता है। आज भी इटली के माफिया को सबसे संगठित और ताकतवर माफिया समूह माना जाता है, लेकिन इनका फैलाव इटली के बाहर बहुत ज्यादा नहीं हुआ। हालांकि ये बाद में राजनीतिक हस्तक्षेप भी करने लगे और सरकारें बनाने-बिगाड़ने के खेल में भी शामिल रहे। 1992 के बाद अपना सिक्का जमाने के लिए संगठित अपराधियों ने बम विस्फोट का सहारा लिया, जिसमें भारत भी झुलसा। यह वह दौर था, जब पूरी दुनिया में संगठित अपराध पर शिकंजा कसा जा रहा था। पलटवार करते हुए माफिया समूहों ने अराजकता फैलाने का दौर शुरू किया। 20वीं सदी की शुरुआत में सिसेलियन माफिया काफी मजबूत रहा, जिसने पहली बार हथियारों के कारोबार में दिलचस्पी ली। पहले विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद हथियारों की होड़ बढ़ी थी, और इसका फायदा माफिया ने उठाया।
भारत में नशे का कारोबार
अफीम उत्पादक समूहों गोल्डन क्रिसेंट और गोल्डन ट्रेंगल के बीच में बसा भारत नशे के कारोबारियों के लिए भौगोलिक रूप से तो महत्वपूर्ण है ही, यह एक बड़े बाजार के रूप में भी देखा जाता है। भारत में ज्यादातर तस्करी सीमावर्ती क्षेत्रों से होती है, जबकि समुद्री जमीन से भारत में नशे की खेपें आती हैं। हेरोइन के अवैध कारोबार का दक्षिण एशिया में बड़ा हिस्सा भारत से होकर गुजरता है। भारत में हेरोइन कारोबार के तार अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बर्मा, लाओस और थाइलैंड से जुड़े हैं। पाकिस्तान और बर्मा से स्मगल होकर लाई जाने वाली हेरोइन नेपाल के जरिए भारत से बाहर भेजी जाती है। जहाजों के जरिए ज्यादातर भारतीय अवैध कारोबार यूरोपीय देशों से होता है। मुंबई इस मामले में अवैध कारोबारियों का गढ़ है, यहां से नाइजीरिया के तार जुड़े हैं। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के अनुसार भारत में करीब 40 लाख हेरोइन एडिक्ट हैं। इसके अलावा भारत में कैनाबीस, हशीश, ओपियम भी बड़े पैमाने पर सप्लाई की जाती है। 2007 में भारत 20 बड़े ड्रग हब में शामिल था, हालांकि उसके बाद से भारत में नशे का कारोबार कम हुआ है। भारत में तस्कर 500 से 700 रुपये प्रति किलो में गांजा खरीदते हैं। दूसरे मुल्कों में पहुंचते ही इसकी कीमत 6 से 10 गुना तक बढ़ जाती है। भारत में गांजे के कारोबार का रूट दक्षिण तथा मध्य क्षेत्र से होता हुआ उत्तर की ओर जाता है, जबकि विदेशों से आनेवाले नशीले द्रव्य ज्यादातर पश्चिमी बंदरगाहों पर उतरते हैं, जहां से भारत के भीतरी हिस्सों में भेजे जाते हैं। रोजमर्रा के इस्तेमाल में आने वाली चीजों जैसे फल और सब्जियों के ट्रक आदि में यह विभिन्न हिस्सों में पहुंचाए जाते हैं। जहां तक गांजे की बात है, तो यह नेपाल और पाकिस्तान के जरिए अन्य देशों तक पहुंचता है। इसी तरह भारत हथियारों के कारोबार का भी अड्डा बनता जा रहा है। 2006 में आई आॅक्सफेम, एमनेस्टी इंटरनेशनल और आईएएनएसए की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 4 करोड़ छोटे अवैध हथियार हैं, जो दुनिया के कुल 7 करोड़ 50 लाख अवैध हथियारों के आधे से ज्यादा है। छोटे अवैध हथियारों की सबसे ज्यादा खपत बिहार, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, झारखंड, ओडिसा और मध्यप्रदेश में है। दाऊद इब्राहिम के भारत से भागने के बाद भी वह भारतीय माफिया को संचालित करता है। 1992 में उसने अंतर्राष्ट्रीय माफिया से सांठगांठ के तहत भारत में अराजकता फैलाने के लिए सीरियल ब्लास्ट करवाए थे, तब से वह अंतर्राष्ट्रीय माफिया के बीच अपनी पकड़ मजबूत किए हुए है और अभी वह दुनिया के ड्रग-हथियार कारोबार में नंबर दो की हैसियत रखता है। भारत में ड्रग माफिया की ताकत का अंदाजा ब्रिटेन निवासी स्कारलेट की मौत से लगाया जा सकता है। जहां दो आरोपियों जिनमें से एक ड्रग व्यापारी है, के अपराध कबूल करने के बाद भी पुलिस जांच बंद है।
नई जमीन की तलाश में माफिया
मैक्सिको में 90 के बाद से सरकार और ड्रग माफिया के बीच खुली जंग चल रही है, जो बीते एक दशक में तेज हो गई है। अंतर्राष्ट्रीय ड्रग माफिया से दुनिया भर में कितनी हलचल है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हाल ही में अमेरिका ने अपनी ड्रग निरोधी नीति में व्यापक बदलाव के संकेत दिए हैं। इसकी तैयारी के लिए पहले ही अमेरिका, अफगानिस्तान के 50 ड्रग माफिया को अपनी हिट लिस्ट में शामिल कर चुका है। इन ड्रग माफिया पर तालिबान से संबंध रखने का संदेह है। ड्रग के धंधे से तालिबान के पास काफी धन आ रहा है, जो उसके अब तक अमेरिकी फौजों के खिलाफ खड़े रहने के पीछे बड़ा कारण है। अमेरिका इस सप्लाई चैन को काटना चाहता है, जिससे कि उसे आतंक के खिलाफ अपनी लड़ाई में महत्वपूर्ण बढ़त मिले। मैक्सिको के बाद पश्चिम एशिया को ड्रग माफिया हसरत भरी निगाहों से देख रहे हैं, जहां उन्हें कच्चा माल और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मार्गों का जाल सुलभ ही उपलब्ध है। अमेरिकी फौजों की मौजूदगी हथियारों के कारोबार में सहूलियत उपलब्ध कराती है, लेकिन ड्रग के कारोबार के आड़े आती है। इसलिए ड्रग माफिया बीच का रास्ता निकालने की तैयारी में है। विश्लेषकों की मानें तो आने वाले दिनों में हथियारों का व्यापार पश्चिम एशिया में और ड्रग का कारोबार गोल्डन ट्राइंगल के जरिए हो सकता है।
हाल ही में मैक्सिको में गिरफ्तार हुए अरेलानो उर्फ सैमुएल ब्रेकामोंटेस के मामले से इसके संकेत मिलते हैं। अरेलानो का परिवार ड्रग ट्रेड में काफी पहले से है। इस कुख्यात परिवार के आठ भाई नशे के सौदागर हैं। मैक्सिको के सबसे मजबूत ड्रग तंत्र तिजुआना गिरोह को संचालित करने वाले अरेलानो ने हाल ही में अपनी गतिविधियां ताइवान, थाइलैंड समेत अन्य पूर्वी एशियाई देशों में तेज की थीं। तिजुआना गिरोह के प्रतिद्वंद्वी गुट सिनालाओ गिरोह के सरगना जीसस जम्बादा गार्सिया को भी हाल ही में गिरफ्तार किया गया है और वह भी पूर्वी एशिया में अपनी योजनाओं को अमली जामा पहना रहा था। जाहिर है कि आने वाले दिनों में पश्चिम एशिया और पूर्वी एशिया क्रमश: हथियार और ड्रग के अड्डे बनेंगे। यह भारत के लिए मुश्किल भरा समय होगा। भारत में गिरफ्तार हुए अफगानी मूल के एक ड्रग माफिया ने बताया था कि वह हेरोइन की तस्करी के लिए भारत आया था, और उसका अंतरराष्ट्रीय आका ड्रग माफिया हाजी जिया, कंधार के ड्रग समूह का सदस्य है। उसी के साथ भारत में नाईजीरियन एमेका पॉल भी गिरफ्तार हुआ था, जो तस्करी के धंधे में शामिल था। ऐसे कई मामले हाल में सामने आए हैं, जिससे साफ है कि आने वाले दिनों में भारत को ड्रग और हथियारों के आवागमन के तौर पर इस्तेमाल की रणनीति अंतर्राष्ट्रीय अपराध तंत्र बना रहा है।
कैसे मिलेगा छुटकारा
पूरी दुनिया को नशे और हथियारों की होड़ से मुक्ति की हालिया उम्मीद का कोई ओर छोर दिखाई नहीं देता। दुनिया के कई हिस्सों में लड़ाइयां चल रही हैं और राजनीतिक अस्थिरता के इस दौर का लाभ संगठित अपराध के आका उठाते हैं। इटली, शिकागो से होते हुए मैक्सिको और अब अफगानिस्तान में बढ़ते नशे-हथियारों के कारोबार से साफ है कि युद्ध ही कालेधंधे को बढ़ावा देते हैं। हालांकि यह उम्मीद लगा लेना भी बेमानी है कि शांति काल में नशे का कारोबार बंद हो जाएगा। असल में अपराध तंत्र की मजबूती के पीछे उनकी राजनीतिक ताकत भी है। राजनीतिक छत्रछाया में पनपने वाला अपराध तंत्र अस्थिरता के दौर में मजबूती हासिल करता है और जब राजनीतिक स्थिरता की स्थिति बनती है, तो वह अपनी जान बचाने के लिए माहौल में अस्थिरता फैलाता है। इटली, मैक्सिको और कनाडा के उदाहरण से हम समझ सकते हैं कि संगठित अपराध अमूमन एक या दो परिवारों के इर्द-गिर्द होते हैं। ज्यादातर माफिया समूहों में कुछ परिवार ही सक्रिय होते हैं। इटली में कम्पेनिया प्रांत में कामोर्रा परिवार का वर्चस्व है, तो कालाबरिया में नदराघेता परिवार की तूती बोलती है। इसी तरह अन्य प्रांतों में भी एक या दो परिवार ही मजबूत हैं। इटली में सिसली परिवार के अंतर्गत ही करीब 94 माफिया समूह आते हैं। इसी तरह अमेरिका में न्यूयॉर्क में जहां पांच परिवारों का वर्चस्व माफिया समूहों पर है, वहीं न्यूजर्सी में करीब सात परिवार काले धंधे में शरीक हैं। उधर पेन्सिलवेनिया में चार परिवारों के इर्द-गिर्द अपराध के पन्ने उड़ते हैं, तो अन्य प्रांतों में भी एक या दो परिवार ही अपराध संचालित करते हैं। ब्रिटेन के माफिया राज में एक ही परिवार कामोर्रा परिवार का वर्चस्व है, जो अंतोनियो ला तोरे संचालित करता है। वेनेजुएला और ब्राजील के माफिया में इटली के सिसेलियन परिवार के ही सदस्यों का बोलबाला है, तो आॅस्ट्रेलिया में दो परिवार पूरे देश में माफिया राज चलाते हैं।
अपराध विशेषज्ञ मानते हैं कि हर देश में विभिन्न राज्यों में कुछ छोटे-मोटे अपराधी समूह होत ही हैं, वे बहुत बड़ा खतरा नहीं होते, जब तक कि उनके तार राजनीतिक लोगों और अंतर्राष्ट्रीय अपराध बिरादरी से न जुड़ें। दिक्कत यह है कि सूचना और तकनीक के प्रसार, आतंकवादी कार्रवाइयों और राजनीतिक अस्थिरताओं ने अपराधियों को संगठित होने का सुलभ मौका मुहैया कराया है। जब तक यह गठजोड़ नहीं टूटता अपराधी संगठनों पर तीखे वार करना संभव नहीं हो पाएगा। साथ ही अपराधियों के पास बढ़ते कालेधन ने भी अलग तरह की दिक्कतें पैदा की हैं, जिससे वे अपने पक्ष में वातावरण बनाने में कामयाब हो जाते हैं। फिर भी मैक्सिको में यदि माफिया के पांव उखड़ते हैं, तो दुनिया को अपराध से मुक्ति में एक बड़ी सफलता मिल जाएगी।

Tuesday, May 3, 2011

सिर्फ तू और मैं

आ चलें उस दुनिया में, जहां बस तेरा-मेरा साथ हो
हवाओं का झूला हो, बादलों का पाट हो
बस तेरे हाथों में मेरा हाथ हो।।
पवन की सरगम में तारों की बारात हो
चांद की सेज हो और बादलों से बात हो
बस तेरे हाथों में मेरा हाथ हो।।
सागर का साहिल हो और पूनम का चांद हो
जुगनुओं की महफिल हो और लहरों से बात हो
बस तेरे हाथों में मेरा हाथ हो।।
भास्कर की पहली किरण हो और पक्षियों का साथ हो
बसंत की बहार हो और हवा में झूलते पहाड़ हों
बस तेरे हाथों में मेरा हाथ हो।।
सूरज छिप रहा हो और लालिमा से कण-कण लाल हो
कोयल का स्वर हो और पत्तों का संगीत हो
तेरी खुशबू मेरी सांसों में हो और दिल की धड़कन एक हो
बस तेरे हाथों में मेरा हाथ हो।।

Sunday, May 1, 2011

तेल की कहानी आकड़ों की जुबानी

18690 हजार
बैरल कच्चा तेल प्रतिदिन खर्च करती है अमेरिका की 31 करोड़ आबादी। कच्चे तेल की खपत करने के मामले में अमेरिका दुनिया में सबसे आगे है।
2980 0हजार
बैरल कच्चा तेल खर्च होता है भारत में प्रतिदिन। प्रति व्यक्ति खपत के मामले में चीन, जापान के बाद भारत पांचवा सबसे बड़ा देश है।
96278 हजार
बैरल कच्चा तेल प्रतिदिन पूरी दुनिया में उपयोग किया जाता है। दस बड़े उपभोक्ता देश इसका करीब 59 प्रतिशत इस्तेमाल करते हैं।
87175 हजार
बैरल कच्चा तेल प्रतिदिन निकाला जाता है पूरी दुनिया के तेल कुओं से। इसमें से दस बड़े उत्पादकों का हिस्सा 63 प्रतिशत है।
10120 हजार
बैरल तेल प्रतिदिन उत्पादन करता है रूस, जो दुनिया में सर्वाधिक है। उत्पादन के मामले में दूसरे स्थान पर सऊदी अरब है।
अधिक विकासदर वाले देशों पर तेल के दामों में उबाल का कम असर होता है
सब्सिडी का बोझ विकसित देशों के मुकाबले ज्यादा उठा सकते हैं विकासशील देश
बढ़ते दामों का असर कम करने के लिए विकसित देशों ने वित्तीय नीतियां बदलीं
बढ़ते दामों का असर कम करने के लिए विकसित देशों ने वित्तीय नीतियां बदलीं
ट्रेड करने वाले स्टॉक एक्सचेंज
न्यूयार्क मर्केंटाइल एक्सचेंज, इंटरनेशनल पेट्रोलियम एक्सचेंज-लंदन, टोक्यो कमोडिटी एक्सचेंज आदि मुख्य रूप से दुनिया में इसकी ट्रेडिंग करते हैं। भारत में यह काम एमसीएक्स करता है।
तेल से निर्मित वस्तुएं
गैसोलीन, पेट्रोल, एलपीजी, नेफथा, कैरोसीन, गैस आॅयल, फ्यूल आॅयल, लुब्रिकेंट, स्फॉल्ट-रोड़ बनाने में प्रयुक्त, ईथेन, एथेलीन, प्रोपेलीन, ब्यूटेडीन, बेंजीन, अमोनिया, प्लास्टिक, सेंथेटिक फाइबर, सेंथेटिक रबर, डिटरजेंट, केमिकल फर्टेलाइजर आदि करामाती कच्चे तेल से ही बनते हैं।
कहां कितना तेल
अफ्रीका 09 प्रतिशत
एशिया 03 प्रतिशत
यूरोप 01 प्रतिशत
मध्य व दक्षिण अमेरिका 08 प्रतिशत
उत्तरी अमेरिका 16 प्रतिशत
पश्चिम एशिया 56 प्रतिशत
देश जनसंख्या तेल उत्पादन उपभोग
ब्रिक
देश जनसँख्या उत्पादन उपभोग
भारत 1,210,193,422 878,700 2,980,000
चीन 1,341,000,000 3,991,000 8,200,000
ब्राजील 190,732,694 2,572,000 2,460,000
रूस 142,905,200 10,120,000 2,740,000
कुल 2884831316 17561700 16380000
दुनिया में प्रतिशत 41.7238 20.1452 17.0067
देश जनसंख्या तेल उत्पादन उपभोग
अमेरिका 311,222,000 9,056,000 18,690,000
ब्रिटेन 62,041,708 1,502,000 1,669,000
जर्मनी 81,879,976 156,800 2,437,000
फ्रांस 65,821,885 70,820 1,875,000
रूस 142,905,200 10,120,000 2,740,000
कनाडा 34,429,000 3,289,000 2,151,000
इटली 60,605,053 146,500 1,537,000
जापान 127,960,000 132,700 4,363,000
कुल 886864822 24473820 35462000
दुनिया में प्रतिशत 12.8269 28.0742 36.8188

तेल की धर में बहती दुनिया

स्वेज नहर विवाद, ईरान-इराक युद्ध, खाड़ी युद्ध, इराक-अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमला और हाल ही में लीबिया समेत दूसरे पश्चिम एशियाई देशों में तनाव। विश्व राजनीति की दिशा बदलने वाली इन घटनाओं में क्या साझा है? जवाब है तेल, 113 डॉलर प्रति बैरल की ऊंचाई को छू रही तेल की धार में बहते युद्ध के उन्माद से जो तस्वीर निकलती है, वह तेल की चाहत में भटकती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं और धरती के गर्भ में छुपे काले सोने के संबंध को साफ करती हैं। युद्ध, तेल और अर्थव्यवस्था की परतों को टटोल रहे हैं... हरिओम वर्मा।
ब संसाधन कम होने लगते हैं, तो उन पर ताकतवर लोगों का दबदबा बढ़ने लगता है। यह बात दुनिया की ऊर्जा जरूरतों को पूरा कर रहे तेल के बारे में भी सही है। जैसे-जैसे तेल के भंडार अपने तयशुदा खात्मे की और बढ़ रहे हैं। वैसे वैसे इन पर विकसित देशों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। इस वर्चस्व को बनाए रखने के जरूरी है कि अपनी ताकत की जद में आॅयल फील्ड को लिया जाए। दुनिया के युद्ध के नक्शे और तेल की उत्पादकता के नक्शे को साथ-साथ रखने पर बात साफ हो जाती है कि बीते 50 सालों में जहां तीखी राजनीतिक लड़ाइयां हुर्इं वहां से तेल की नदी जरूर बहती है। क्या यह अनायास है कि बीते दस सालों में दुनिया की भारी-भरकम अर्थव्यवस्थाओं ने जिस पश्चिम एशिया को फौजी बूटों का डांसिंग हॉल बनाया हुआ है, वह दुनिया की तेल जरूरतों का बड़ा हिस्सा पूरा करता है। आने वाले समय में युद्ध-तेल का यह गठजोड़ और तीखा होगा। अमेरिका को एक पाइपलाइन की दरकार है, क्योंकि अगर वह तेल आयात नहीं करेगा और अपने तेल भंडारों के भरोसे ही गाड़ियां दौड़ाएगा, तो उसके तेल भंडार 2018 में खत्म हो जाएंगे। इसके लिए जरूरी है कि पश्चिम एशिया से एक पाइपलाइन लाए। इस पाइप लाइन के दो संभावित रास्ते हो सकते हैं। पहला है पश्चिमी सिरे पर अलास्का तक चीन, जापान और रूस की जमीन व समुद्र क्षेत्र के सहारे और दूसरा रास्ता है खाड़ी देशों के साथ उत्तरी अफ्रीका के साथ प्रशांत महासागर की लहरों का सीना चीरकर पाइपलाइन बिछाना। दुनिया की हालिया राजनीति में चीन से कोई मदद की उम्मीद अमेरिका को नहीं है, इसलिए उसके लिए दूसरे रास्ते पर विचार करना मजबूरी है। यह मजबूरी विश्व की बढ़ती आबादी की ऊर्जा आवश्यकताओं के आड़े आती है। विकास के तेज होते पहिए पर वह बिंदु यहीं से दिखाई देता है, जिसमें दुनिया अमेरिकी दादागीरी का रंगमंच बन जाती है। इस तीखी होती तरल लड़ाई में एक तरफ अमेरिका है, तो दूसरी तरफ चीन, रूस, ब्राजील, अफ्रीका और भारत और केंद्र में वह आॅयल फील्ड जो दुनिया के तेल भंडारों का करीब 70 प्रतिशत हिस्सा अपने में समेटे है। आने वाले दिनों यह लड़ाई किस सिरे लगेगी कहना मुहाल है, लेकिन अब तक के संकेतों से साफ है, कि बदलती-बिगड़ती अर्थव्यवस्थाओं को ज्यादा से ज्यादा युद्ध की जरूरत होगी। ऐसे में 1935 का कीन्स का वेलफेयर स्टेट का मुगालता भी कमजोर होगा और साथ ही तेल पर कब्जे के संगठित प्रयास बढ़ते जाएंगे।
अमेरिकी राजनीति की बिसात
दुनिया की ज्यादातर आबादी एशिया में रहती है। इसमें चीन और भारत सबसे तेजी से जनसंख्या की गाड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि आए दिन अमेरिका बयान जारी करता रहता है कि दुनिया में जो तेल और खाद्य पदार्थों की किल्लत है वह भारत और चीन के कारण है। वहीं अमेरिका की ही वेबसाइट सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी बताती है कि यूएस ही दुनिया में सबसे ज्यादा तेल खर्च करता है। वह प्रति दिन 18,690,000 बैरल तेल का उपयोग करता है, जबकि भारत महज 2,980,000 बैरल डेली के हिसाब से खर्च करता है। इसके अलावा चीन 8,200,000 बैरल प्रत्येक दिन तेल पी जाता है। अमेरिकी यह तो चाहता है कि दूसरे देश तेल का उपयोग कम करें, लेकिन वह यह सलाह अपने देश के लिए लागू नहीं करता। तेल की कीमतों को बढ़ाने में भी अमेरिका का अहम योगदान रहा है। वह अपने स्रोतों को रिजर्व करता जा रहा है और अन्य देशों-जिन देशों में तेल का अथाह भंडार है, उन पर किसी न किसी तरीके से कब्जा करने की कोशिश कर रहा है। यही नहीं वह इसके वैकल्पिक रास्तों पर अमल क
फौजें कैंप और आॅयल पॉलिटिक्स
युद्ध का खौफ दिखाकर यूएस नाटो की आड़ में अपने और चहेते राष्ट्रों के मंसूबे पूरे करता रहता है। पश्चिम एशिया जो तेल का खजाना है, उसे वह कभी हाथ से जाने नहीं दे रहा। अमेरिकी सैन्य बेस प्रमुख रूप से यूरोप में बनाए गए हैं। जर्मनी में 26, ब्रिटेन और इटली में इनकी संख्या आठ है। जापान पर तो अमेरिकी सैन्य हाथ है। पिछले कुछ साल में फारस की खाड़ी में 14 सैन्य बेस तैयार किए हैं। इराक में 20 सैन्य बेसों को तैयार कर रहा है। पश्चिम एशिया में ऐसे दस सैन्य अड्डों का भी उपयोग कर रहा है। अमेरिका अन्य कई देशों जैसे मोरक्को, आॅस्ट्रेलिया, पोलैंड, चेक गणराज्य, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किरिगिंस्तान, इटली और फ्रांस में सैन्य बेस स्थापित करने, पर विचार कर रहा है। वह इनकी सहायता से कोलंबिया से लेकर उत्तर अफ्रीका, पश्चिम एशिया और फिलीपींस तक पूरे कॉरिडोर में सैन्य अड्डों की एक कड़ी स्थापित करना चाहता है। अमेरिका के दुनिया के अन्य देशों में 4.12 लाख सैनिक हैं, जिसमें से 97,000 सैनिक एशिया में तैनात हैं। यह तैयारी बताती है आने वाले समय में युद्ध की जमीन कौन सी होगी। साफ है कि युद्ध का मकसद तेल भंडार पर कब्जा ही है।
कू्रड आॅयल क्या है
पेट्रोलियम का उपयोग दैनिक जीवन न हो तो जीवन का पहिया शायद रुक जाए। पेट्रोलियम हाईड्रोकार्बनों का मिश्रण होता है। इसका निर्माण वनस्पतियों के पृथ्वी के नीचे दबने और कालांतर में उनके उपर उच्च दाब व ताप पड़ने से हुआ। प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले इसी पेट्रोलियम को कू्रड तेल कहते हैं, जो काले रंग का गाढ़ा द्रव होता है। इसके फ्रैक्शनल डिस्टिलेशन से कैरोसिन, पेट्रोल, डीजल, प्राकृतिक गैस, वैसलीन, ल्यूब्रिकेंट तेल आदि प्राप्त होते हैं। हाइड्रोकार्बन्स में मौजूद हाइड्रोजन और कार्बन के अणु एक दूसरे से कई कड़ियों में बंधे होते हैं। यही कड़ियां कई प्रकार के तेल उत्पादों का स्रोत होती हैं। इनकी सबसे छोटी कड़ी मीथेन का आधार बनती है। इनमें लंबी कड़ी वाले हाइड्रोकार्बन्स ठोस जैसे मोम या टार प्रोडक्ट का निर्माण करते हैं। जब यह पृथ्वी से निकाला जाता है, तो ठोस रूप में होता है। इसमें मौजूद हाइड्रोकार्बन की कड़ियों को अलग करना पड़ता है। हाइड्रोकार्बन की विभिन्न चेनों को अलग करने की प्रक्रिया को केमिकली क्रांस लिंकिंग हाइड्रोकार्बन या शोधन प्रक्रिया कहते हैं। यह प्रक्रिया रिफाइनरीज में होती है। यह प्रक्रिया काफी कठिन होती है, दरअसल हर प्रकार के हाइड्रोकार्बन्स का बॉइलिंग पॉइंट अलग-अलग होता है, इस तरह डिस्टिलेशन की प्रक्रिया से उन्हें अलग किया जाता है। क्रूड आॅयल के दो समूह होते हैं, एक डब्ल्युटीआई (वेस्ट टेक्सास इंटर मीडिएट) क्रूड, जो उच्च गुणवत्ता वाला होता है। दूसरा ब्रेंट क्रूड जो यूरोपियन स्टैंडर्ड के अनुसार चलता है। ईरान के गवर्नर मोहम्मद अली खातीबी कहते हैं, कि बाजार में कच्चे तेल की कमी नहीं है और प्रतिदिन 10 लाख बैरल कच्चे तेल की आपूर्ति बाजार में की जा रही है। जो जरूरत से बहुत ज्यादा है। उनका कहना है, कि अगर देशों में संकट जारी रहा तो कच्चे तेल के दाम और बढ़ सकते हैं। वहीं सऊदी अरब के पूर्व तेल मंत्री शेख जाकी यमानी कहते हैं, कि यदि उनके देश में कुछ होता है तो कच्चा तेल 200 डालर से लेकर 300 डालर प्रति बैरल तक जा सकता है।
दामों में उबाल का असर
विश्लेषकों का मानना है कि तेल के दाम बढ़ने का असर भारत जैसे विकासशील देशों के मुकाबले पश्चिमी विकसित देशों पर ज्यादा होगा। पश्चिमी देशों की विकास दर भारत जैसे विकासशील देशों के मुकाबले काफी कम है, जिसके चलते इन देशों की अर्थव्यवस्था तेल के बढ़ते दामों से ज्यादा प्रभावित होगी। कच्चे तेल में आई तेजी से विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी, लेकिन ये देश सब्सिडी के बोझ को विकसित देशों के मुकाबले ज्यादा सहन करने की स्थिति में हैं। विकसित देशों ने अपने यहां बजट घाटे को कम करने के लिए अपनी वित्तीय नीतियों को सख्त किया है। कभी मुक्त बाजार का हिमायती रहा अमेरिका आज आउटसोर्सिंग को बंद करने, इलाज भारत से न कराने की बात करता है। संरक्षणवाद के पीछे वह अपनी अर्थव्यवस्था में सुधार की कोशिशें कर रहा है। विकसित देशों की अर्थव्यवस्था गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रही हैं। जानकार बताते हैं, कि क्रूड तेल के दामों में आई इस बढ़ोतरी के चलते विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं को आर्थिक संकट से बाहर निकलने में देरी हो सकती है।
इनको होगा फायदा
तेल के दाम बढ़ने से कुछ देशों को लाभ भी होगा। इनमें रूस, मैक्सिको और ब्राजील शामिल हैं। तेल के दाम बढ़ने के कारण इस पर होने वाले खर्च में बढ़ोतरी हो जाएगी। साथ ही इसका उपभोग भी कम हो सकता है। इसके अलावा जो देश तेल का आयात करने के बाद उसका निर्यात करते हंै। ऐसे देशों के लाभ में इस बढ़ोतरी के चलते कमी आएगी।
भारत को होगी सबसे ज्यादा तेल की जरूरत
देश में हाइड्रोकार्बन के नए भंडार मिलने के बावजूद आने वाले वर्षों में भारत की विदेशी कच्चे तेल पर निर्भरता बढ़ेगी। तेज आर्थिक विकास के चलते भारत में पेट्रोलियम उत्पादों की खपत भी बढ़ेगी और वर्ष 2025 तक देश अमेरिका व चीन के बाद विश्व का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक देश हो जाएगा। वैसे तो कच्चे तेल के आयात पर भारत को काफी धन खर्च करना पड़ेगा, इसमें भी राहत की बात यह है कि इस दौरान देश रिफाइनरी उत्पादों का एक बड़ा निर्यातक भी बनकर उभरेगा।
भारत के लिए खतरे की घंटी
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा संघ (आईईए) ने भारत में ऊर्जा मांग की जो तस्वीर खींची है, वह कई मायनों में चिंताजनक है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत वर्ष 2030 तक अपनी आवश्यकता का 90 प्रतिशत कच्चा तेल विदेश से खरीदेगा। जाहिर है इस पर अरबों डालर खर्च करने होंगे। कोयले के बारे में कहा गया है, कि 2030 तक इसकी खपत देश में तीन गुना बढ़ जाएगी। सबसे ज्यादा मांग परिवहन क्षेत्र से आएगी। आईईए ने कहा, कि भारत को बिजली क्षेत्र में भारी निवेश करने की जरूरत है, तभी अगले 22-23 वर्षों में देश की 96 प्रतिशत आबादी तक बिजली पहुंचाई जा सकेगी। वर्ष 2005 में मात्र 62 प्रतिशत आबादी को ही बिजली मयस्सर थी। हाल के दिनों में भारत में जो विशाल गैस भंडार मिले हैं, वे भी इसकी गैस की जरूरतों को लंबे समय तक पूरी नहीं कर सकेंगे। आईईए के मुताबिक वर्ष 2030 के बाद गैस को लेकर भी विदेश पर भारत की निर्भरता बढ़ेगी। रिपोर्ट के मुताबिक कुछ दशकों बाद विश्व की कुल ऊर्जा खपत का 45 प्रतिशत केवल भारत और चीन के खाते में जाएगा। तेल आयात के चलते भारत को भले ही भारी-भरकम धनराशि खर्च करनी पड़ रही हो, लेकिन इससे विश्व के कई देशों को फायदा होगा। आईईए ने कहा है कि भारत और चीन में ऊर्जा की मांग बढ़ने से विश्व के कई देशों को अपार फायदा होगा। इससे अन्य देशों के साथ चीन व भारत के द्विपक्षीय रिश्ते पर भी काफी असर पड़ेगा। रिपोर्ट में यह भी कहा है कि भारत व चीन की भारी ऊर्जा मांग को विश्व की सामूहिक चुनौती के तौर पर देखा जाना चाहिए। भारत महज नौ लाख बैरल प्रति दिन उत्पादन करता है। भारत की बढ़ती आबादी और इन आंकड़ों से अंदाजा लगाना आसान हो जाता है कि आने वाले दिनों में भारत दुनिया का बड़ा तेल आयातक देश होगा।
धीमा होगा विकास का पहिया
अमूमन देखा गया कि विकास की रफ्तार तेल के साथ-साथ ताल मिलाती है। विशेषज्ञों का मानना है कि तेल के दाम में 10 डॉलर प्रति बैरल की बढ़त से हिंदुस्तान की जीडीपी 0.5 से एक प्रतिशत तक खिसक जाएगी। भारत की अर्थव्यवस्था जो पिछले कई सालों से हुंकार रही है। इसलिए अब सतर्क हाने की जरूरत है, क्योंकि धीरे-धीरे भारत सरकार, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठन भारत की जीडीपी दर को कमतर करते जा रहे हैं। यह कमी आॅयल के दामों में बढ़ोत्तरी के साथ और कम होने के आसार हैं।
कैसे बढ़ते हैं कच्चे तेल के दाम
क्रूड आॅयल विश्लेषक कर्स्टन फ्रिच कहते हैं, कि अमेरिकी डॉलर की कमजोरी, सर्दी के कहर और आयात बढ़ने या उत्पादन में कमी से क्रूड आॅयल की कीमतों को भारी समर्थन मिलता है। दुनिया के दूसरे सबसे बड़े ऊर्जा उपभोक्ता चीन लगातार इसके आयात में इजाफा कर रहे हैं। डॉलर के कमजोर होने से क्रूड आॅयल दूसरी मुद्राओं में सस्ता पड़ता है, जिससे खरीद में बढ़ोतरी दर्ज की जाती है। इसके अलावा यदि उत्पादक देश जैसे नाइजीरिया, सउदी अरब, लीबिया आदि देशों में किसी तरह की अस्थिरता, तनाव या आंतरिक व बाहरी मसलों पर कुछ उलझनें होती हंै, तो इसके उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इससे तेल की कमी हो जाती है और इसकी कीमतें आसमान छूने लगती हैं।
मुक्त बाजार की ओर बढ़ता भारत
वर्ष 1991 में भारत ने विदेशी निवेश को पाने के लिए तेजी से कदम बढ़ाए। तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकण की नीतियों को अमली जामा पहनाकर देश में औद्योगिक क्रांति के नए दौर का सूत्रपात किया। तब से लेकर अब तक भारत मुक्त बाजार यानी सब कुछ मुनाफे में तब्दील करने की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है। इस पर समय-समय पर सवालों के तीर सरकार पर चले कि जब सब बाजार के हवाले ही करना है, तो सरकार का क्या काम? शिक्षा, मनोरंजन, स्वास्थ्य से लेकर ढांचागत सुविधाओं तक के लिए तो सरकार बड़ी कंपनियों पर निर्भर हो ही गई थी, अब चीनी, तेल, कर आदि की जिम्मेदारी को भी धीरे-धीरे बाजार की ओर खिसकाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। उम्मीद यही की जा रही है कि 2020 तक हम पूरी तरह बाजार के भरोसे होंगे। आम बजट 20011 में जीएसटी और सेवा पर कर का प्रावधान इसके ताजा उदाहरण हैं। तेल को बाजार के हवाले करना और संवेदनशील हो जाता है, क्योंकि यह विकास के पहिए को गति को देने के लिए जरूरी चीज है। अब तक सरकार ने तेल को बाजार के हवाले किया तो है, लेकिन मूल्य वृद्धि की चाबी अपने हाथ में रखी है। इसके सहारे भारतीय आॅयल पॉलिटिक्स में अभी सरकार एक पक्ष बनी हुई है लेकिन हालात जिस तेजी से बदल रहे हैं, उनमें लगातार यह मुमकिन नहीं होगा कि सरकारी वर्चस्व तेल पर बना रह सके। निजी कंपनियों के बढ़ते कारोबार ने नई आर्थिक नीतियों के साथ वह शक्ल तैयार कर दी है, जब भारतीय तेल बाजार पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण के बाहर होगा।
ओपेक की तेल की नब्ज पर पकड़
तेल निर्यातक राष्ट्र संगठन (ओपेक)- 1949 में वेनेजुएला ने संगठन की नींव रखी। पूरी तरह से अस्तित्व में 14 सितंबर 1960 में आया, जब 6 देशों ईरान, इराक, सउदी अरब, वेनेजुएला, कुवैत आदि देशों ने अथक प्रयास किया। यह पेट्रोलियम उत्पादक 12 देशों का संगठन है। इसके सदस्यों में अल्जीरिया, अंगोला, एक्वाडोर, ईरान, ईराक, कुवैत सउदी अरब, नाइजीरिया, लीबिया, वेनेज्वेला, यूएई, कतर, आदि शामिल हैं। सन 1965 से ही इस संगठन का मुख्यालय विएना में है। इंडोनेशिया की सदस्यता समाप्त हो गई है, क्योंकि अब तेल निर्यातक के बजाय आयातक देश हो चुका है। ओपेक का गठन स्वेज नहर विवाद से जुड़ा है।
उथल-पुथल के बीच तेल कीमतें
ओपेक के 12 देशों के अलावा रूस, चीन, ब्रजील, मैक्सिको, यूरोपीय यूनियन, ब्रिटेन, इंडोनेशिया आदि देश भी वैश्विक तेल उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 1960 में ओपेक पूरी तरह से अस्तित्व में आया और 1979-86, 1990, 2000 और 2004 के बाद की गतिविधि पर नजर डालें, तो दिलचस्प बातें सामने आएगीं। वर्ष 1976 में जब तेल उत्पादक देशों ईरान-इराक में युद्ध हुआ, तो तेल कीमतें 15 से 40 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गर्इं। शांति के बाद कीमतें 10 डॉलर पर आ गर्इं। इराक ने जब कुवैत पर आक्रमण किया, तो तेल फिर से 35 डॉलर पर पहुंच गया। एशियाई मंदी, ओपेक देशों की तेल उत्पादन में कटौती, वर्ड ट्रेड सेंटर पर हमला, इराक और वेनेजुएला पर युद्ध के बादल, मैक्सिको की खाड़ी में तूफान, नाइजीरिया का तेल उत्पादन में कटौती करना आदि सभी उथल-पुथलों से तेल कीमतों में कभी सुनामी जैसी लहरें आर्इं, तो कभी ठंडे थपेड़े भी मिले। ईरान, सउदी अरब आदि देशों की तो अर्थव्यवस्था तेल और प्राकृतिक गैस से संबंधित उद्योगों तथा कृषि पर आधारित है। सन 2006 में ईरान के बजट का 45 प्रतिशत तेल तथा प्राकृतिक गैस से मिली रकम से आया था।
युद्ध की राजनीति में तेल का छौंक
क्रूड के प्राइस वार का इतिहास देखें, तो जब-जब युद्ध हुए, या करवाए गए, तेल के दामों ने रफ्तार पकड़ी और तेल उत्पादक, निर्यातक देशों और तेल कंपनियों को अरबों डॉलर का फायदा हुआ व जनता को हरबार लगा चूना। ओपेक के अस्तित्व में आने के बाद इराका-इरान, इराक-कुवैत युद्ध, वेनेजुएला और इराक पर युद्ध के बादलों से तेल ने ऐसी ताल पकड़ी कि 2008 तक 90 डॉलर का आंकड़ा पार कर लिया। हाल ही में ट्यूनीशिया, मिस्र, लीबिया आदि देशों की क्रांति की आग में तेल के दाम भी जल उठे और 120 डॉलर के करीब पहुंच गए। अमेरिका समेत सभी विकसित देशों की आर्थिक स्थिति ज्यादातर तेल, हथियार और शोध पर निर्भर है। अगर युद्ध बंद होंगे, तो इनकी अर्थव्यवस्था दम तोड़ सकती है, इसलिए दुनिया में तनाव होना बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के लिए मुफीद है। अमेरिका पश्चिम एशिया में अपनी पकड़ ढीली नहीं होने देना चाहता। इसके लिए सद्दाम हुसैन की सत्ता को जमींदोज करना, अफगानिस्तान में बमों की वारिस से लाखों बेगुनाहों को हलाक करना और मिश्र, लीबिया, ट्यूनीशिया, यमन में अपनी पसंदीदा सरकारें बनवाते रहना, उसकी तेल बजारों पर कब्जे की रणनीति का हिस्सा रहे हैं। साफ है कि सारे राष्ट्र अपने हितों को सर्वोपरि मानते हैं, और इसीलिए दो देशों के हित जब एक दूसरे से टकराते हैं, तो युद्ध की जमीन तैयार होती है। युद्ध की आग जमीन के नीचे बहते तेल भंडार तक भी पहुंचती है, और उनमें आग लग जाती है। तेल के दाम बढ़ने और तेल-युद्ध के दाम मिलने का यह सिलसिला बीते 6 दशकों की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का सबसे दिलचस्प पहलू रहा है। आने वाले समय में जब तक वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की खोज तेज नहीं हो जाती तेल की राजनीति अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के बीच के्रंद में रहेगी और इसमें पलड़ा उसी का भारी रहेगा, जिसे भौगोलिक स्थिति और पारिस्थतिकी तंत्र का सहयोग मिलेगा, यानी अमेरिका।
कितना उत्पादन, कितना तेल
दुनिया के ताकतवर देशों में जो चकाचौंध है वह गरीब और विकासशाील देशोें के शोषण से आई है। तेल भी इसका उदाहरण है। जी-8 देशों में पूरी दुनिया की 12 प्रतिशत आबादी रहती है। इन देशों ने 2009-10 में प्रति दिन लगभग 24473 हजार बैरल तेल का उत्पादन किया, वहीं उपभोग के मामले में यह देश दुनिया के कुल उपभोग का 37 प्रतिशत इस्तेमाल करते हैं। इसके विपरीत ब्रिक देश दुनिया के कुल तेल उत्पादन में 20 प्रतिशत का योगदान देते हैं और उनका खर्च महज 17 प्रतिशत ही है। तेल का भंडार बचा रह सके इसके लिए जरूरी है कि जितना तेल उत्पादित हो रहा है, उसका कम खर्च किया जाए, लेकिन अभी इसका उलटा हो रहा है। यानी उत्पादन कम है और खर्च ज्यादा।
भारत में तेल
दर्जनों ऐसे देश हैं जो कच्चे तेल का छुटपुट उत्पादन करते हैं। भारत उनमें शामिल है। तेल के उत्पादन, शोधन और वितरण का काम मुख्यत: सरकारी कंपनियां जैसे ओएनजीसी, आॅयल इंडिया लिमिटेड, इंडियन आॅयल कॉर्पोरेशन, गैस इंडिया लिमिटेड, भारत पेट्रोलियम और हिन्दुस्तान पेट्रोलियम आदि हैं, जो मुख्यत: तेल शोधन और वितरण का काम करती हैं। निजी क्षेत्र में रिलायंस पेट्रोलियम भारत में उत्पादन शोधन और वितरण का काम करती है। देश की जरूरत का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा सरकारी कंपनियों से ही आता है।
कहां है विकल्प
धरती के गर्भ में सीमित संसाधन हैं और इन्हीं से हमें काम चलाना होगा। हां, वैकल्पिक संसाधनों का प्रयोग किया जा सकता है, जैसे सोलर एनर्जी, विंड एनर्जी, बायोडीजल आदि। पानी से भी गाड़ियों को चलाने के लिए शोध बड़े पैमाने पर चल रहा है। क्रूड आॅयल जो सीमित है और उसे कभी न कभी तो समाप्त होना ही है, इसलिए हमें इन सारे विकल्पों पर दुगुनी ताकत से शोध और अमल करना चाहिए, ताकि हम इस हरी भरी धरती को सभी जीवों और प्राणियों के लिए जीने की सही जगह बना सकें।
अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) : यह एक स्वतंत्र और कई देशों को मिलाकर बनाई गई संस्था है। वर्ष 1973 के तेल संकट के दौरान इसका खाका खींचा गया। इसका प्राथमिक उद्देश्य तेल के बाजार, ऊर्जा आदि के आंकड़े प्रदान करना आदि था। यह संगठन के सदस्यों को ऊर्जा संसाधनों के बारे में सलाह देने का भी काम करता है। आईईए गैर सदस्य देशों जैसे भारत, चीन और रूस का भी सलाहकार काम करता है। संगठन मूलत: तीन चीजों पर काम करता है, ऊर्जा सुरक्षा, अर्थव्यस्था का विकास, पर्यावरण सुरक्षा। इसके अलावा आईईए अल्टरनेट एनर्जी, और क्लामेट चेंज को सुरक्षित रखने में योगदान देता है।
मुद्रा : इसका लेन-देन अमेरिकी डॉलार में होता है, जो एक देश द्वारा पेट्रोलियम बेच कर प्राप्त की जाती है। तेल उत्पादक ओपेक देशों द्वारा प्रचुर मात्रा में कमाये जा रहे डॉलार की स्थिति, कच्चे तेल के उत्पादन और वितरण पर भी निर्भर करती है।
1973 का ऊर्जा संकट : अमेरिका के इज्रराइल मुद्दे पर कड़क होने से ओपेक ने दक्षिणी देशों को तेल की सप्लाई बंद कर दी। सउदी अरब ने तेल उत्पादन में भयंकर कटौती की। इससे तेल की कीमतों में चार गुना की वृद्धि हो गई। जो अक्टूबर 1973 से मार्च 1974 तक चली। इसके बाद ओपेक देशों में तेल कीमतों में पारदर्शिता लाने के लिए बैठकों का दौर जारी हो गया। ऊर्जा संकट 1970, 1979 और 2000 में एक बार फिर उभरा।