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Sunday, May 1, 2011

तेल की धर में बहती दुनिया

स्वेज नहर विवाद, ईरान-इराक युद्ध, खाड़ी युद्ध, इराक-अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमला और हाल ही में लीबिया समेत दूसरे पश्चिम एशियाई देशों में तनाव। विश्व राजनीति की दिशा बदलने वाली इन घटनाओं में क्या साझा है? जवाब है तेल, 113 डॉलर प्रति बैरल की ऊंचाई को छू रही तेल की धार में बहते युद्ध के उन्माद से जो तस्वीर निकलती है, वह तेल की चाहत में भटकती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं और धरती के गर्भ में छुपे काले सोने के संबंध को साफ करती हैं। युद्ध, तेल और अर्थव्यवस्था की परतों को टटोल रहे हैं... हरिओम वर्मा।
ब संसाधन कम होने लगते हैं, तो उन पर ताकतवर लोगों का दबदबा बढ़ने लगता है। यह बात दुनिया की ऊर्जा जरूरतों को पूरा कर रहे तेल के बारे में भी सही है। जैसे-जैसे तेल के भंडार अपने तयशुदा खात्मे की और बढ़ रहे हैं। वैसे वैसे इन पर विकसित देशों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। इस वर्चस्व को बनाए रखने के जरूरी है कि अपनी ताकत की जद में आॅयल फील्ड को लिया जाए। दुनिया के युद्ध के नक्शे और तेल की उत्पादकता के नक्शे को साथ-साथ रखने पर बात साफ हो जाती है कि बीते 50 सालों में जहां तीखी राजनीतिक लड़ाइयां हुर्इं वहां से तेल की नदी जरूर बहती है। क्या यह अनायास है कि बीते दस सालों में दुनिया की भारी-भरकम अर्थव्यवस्थाओं ने जिस पश्चिम एशिया को फौजी बूटों का डांसिंग हॉल बनाया हुआ है, वह दुनिया की तेल जरूरतों का बड़ा हिस्सा पूरा करता है। आने वाले समय में युद्ध-तेल का यह गठजोड़ और तीखा होगा। अमेरिका को एक पाइपलाइन की दरकार है, क्योंकि अगर वह तेल आयात नहीं करेगा और अपने तेल भंडारों के भरोसे ही गाड़ियां दौड़ाएगा, तो उसके तेल भंडार 2018 में खत्म हो जाएंगे। इसके लिए जरूरी है कि पश्चिम एशिया से एक पाइपलाइन लाए। इस पाइप लाइन के दो संभावित रास्ते हो सकते हैं। पहला है पश्चिमी सिरे पर अलास्का तक चीन, जापान और रूस की जमीन व समुद्र क्षेत्र के सहारे और दूसरा रास्ता है खाड़ी देशों के साथ उत्तरी अफ्रीका के साथ प्रशांत महासागर की लहरों का सीना चीरकर पाइपलाइन बिछाना। दुनिया की हालिया राजनीति में चीन से कोई मदद की उम्मीद अमेरिका को नहीं है, इसलिए उसके लिए दूसरे रास्ते पर विचार करना मजबूरी है। यह मजबूरी विश्व की बढ़ती आबादी की ऊर्जा आवश्यकताओं के आड़े आती है। विकास के तेज होते पहिए पर वह बिंदु यहीं से दिखाई देता है, जिसमें दुनिया अमेरिकी दादागीरी का रंगमंच बन जाती है। इस तीखी होती तरल लड़ाई में एक तरफ अमेरिका है, तो दूसरी तरफ चीन, रूस, ब्राजील, अफ्रीका और भारत और केंद्र में वह आॅयल फील्ड जो दुनिया के तेल भंडारों का करीब 70 प्रतिशत हिस्सा अपने में समेटे है। आने वाले दिनों यह लड़ाई किस सिरे लगेगी कहना मुहाल है, लेकिन अब तक के संकेतों से साफ है, कि बदलती-बिगड़ती अर्थव्यवस्थाओं को ज्यादा से ज्यादा युद्ध की जरूरत होगी। ऐसे में 1935 का कीन्स का वेलफेयर स्टेट का मुगालता भी कमजोर होगा और साथ ही तेल पर कब्जे के संगठित प्रयास बढ़ते जाएंगे।
अमेरिकी राजनीति की बिसात
दुनिया की ज्यादातर आबादी एशिया में रहती है। इसमें चीन और भारत सबसे तेजी से जनसंख्या की गाड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि आए दिन अमेरिका बयान जारी करता रहता है कि दुनिया में जो तेल और खाद्य पदार्थों की किल्लत है वह भारत और चीन के कारण है। वहीं अमेरिका की ही वेबसाइट सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी बताती है कि यूएस ही दुनिया में सबसे ज्यादा तेल खर्च करता है। वह प्रति दिन 18,690,000 बैरल तेल का उपयोग करता है, जबकि भारत महज 2,980,000 बैरल डेली के हिसाब से खर्च करता है। इसके अलावा चीन 8,200,000 बैरल प्रत्येक दिन तेल पी जाता है। अमेरिकी यह तो चाहता है कि दूसरे देश तेल का उपयोग कम करें, लेकिन वह यह सलाह अपने देश के लिए लागू नहीं करता। तेल की कीमतों को बढ़ाने में भी अमेरिका का अहम योगदान रहा है। वह अपने स्रोतों को रिजर्व करता जा रहा है और अन्य देशों-जिन देशों में तेल का अथाह भंडार है, उन पर किसी न किसी तरीके से कब्जा करने की कोशिश कर रहा है। यही नहीं वह इसके वैकल्पिक रास्तों पर अमल क
फौजें कैंप और आॅयल पॉलिटिक्स
युद्ध का खौफ दिखाकर यूएस नाटो की आड़ में अपने और चहेते राष्ट्रों के मंसूबे पूरे करता रहता है। पश्चिम एशिया जो तेल का खजाना है, उसे वह कभी हाथ से जाने नहीं दे रहा। अमेरिकी सैन्य बेस प्रमुख रूप से यूरोप में बनाए गए हैं। जर्मनी में 26, ब्रिटेन और इटली में इनकी संख्या आठ है। जापान पर तो अमेरिकी सैन्य हाथ है। पिछले कुछ साल में फारस की खाड़ी में 14 सैन्य बेस तैयार किए हैं। इराक में 20 सैन्य बेसों को तैयार कर रहा है। पश्चिम एशिया में ऐसे दस सैन्य अड्डों का भी उपयोग कर रहा है। अमेरिका अन्य कई देशों जैसे मोरक्को, आॅस्ट्रेलिया, पोलैंड, चेक गणराज्य, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किरिगिंस्तान, इटली और फ्रांस में सैन्य बेस स्थापित करने, पर विचार कर रहा है। वह इनकी सहायता से कोलंबिया से लेकर उत्तर अफ्रीका, पश्चिम एशिया और फिलीपींस तक पूरे कॉरिडोर में सैन्य अड्डों की एक कड़ी स्थापित करना चाहता है। अमेरिका के दुनिया के अन्य देशों में 4.12 लाख सैनिक हैं, जिसमें से 97,000 सैनिक एशिया में तैनात हैं। यह तैयारी बताती है आने वाले समय में युद्ध की जमीन कौन सी होगी। साफ है कि युद्ध का मकसद तेल भंडार पर कब्जा ही है।
कू्रड आॅयल क्या है
पेट्रोलियम का उपयोग दैनिक जीवन न हो तो जीवन का पहिया शायद रुक जाए। पेट्रोलियम हाईड्रोकार्बनों का मिश्रण होता है। इसका निर्माण वनस्पतियों के पृथ्वी के नीचे दबने और कालांतर में उनके उपर उच्च दाब व ताप पड़ने से हुआ। प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले इसी पेट्रोलियम को कू्रड तेल कहते हैं, जो काले रंग का गाढ़ा द्रव होता है। इसके फ्रैक्शनल डिस्टिलेशन से कैरोसिन, पेट्रोल, डीजल, प्राकृतिक गैस, वैसलीन, ल्यूब्रिकेंट तेल आदि प्राप्त होते हैं। हाइड्रोकार्बन्स में मौजूद हाइड्रोजन और कार्बन के अणु एक दूसरे से कई कड़ियों में बंधे होते हैं। यही कड़ियां कई प्रकार के तेल उत्पादों का स्रोत होती हैं। इनकी सबसे छोटी कड़ी मीथेन का आधार बनती है। इनमें लंबी कड़ी वाले हाइड्रोकार्बन्स ठोस जैसे मोम या टार प्रोडक्ट का निर्माण करते हैं। जब यह पृथ्वी से निकाला जाता है, तो ठोस रूप में होता है। इसमें मौजूद हाइड्रोकार्बन की कड़ियों को अलग करना पड़ता है। हाइड्रोकार्बन की विभिन्न चेनों को अलग करने की प्रक्रिया को केमिकली क्रांस लिंकिंग हाइड्रोकार्बन या शोधन प्रक्रिया कहते हैं। यह प्रक्रिया रिफाइनरीज में होती है। यह प्रक्रिया काफी कठिन होती है, दरअसल हर प्रकार के हाइड्रोकार्बन्स का बॉइलिंग पॉइंट अलग-अलग होता है, इस तरह डिस्टिलेशन की प्रक्रिया से उन्हें अलग किया जाता है। क्रूड आॅयल के दो समूह होते हैं, एक डब्ल्युटीआई (वेस्ट टेक्सास इंटर मीडिएट) क्रूड, जो उच्च गुणवत्ता वाला होता है। दूसरा ब्रेंट क्रूड जो यूरोपियन स्टैंडर्ड के अनुसार चलता है। ईरान के गवर्नर मोहम्मद अली खातीबी कहते हैं, कि बाजार में कच्चे तेल की कमी नहीं है और प्रतिदिन 10 लाख बैरल कच्चे तेल की आपूर्ति बाजार में की जा रही है। जो जरूरत से बहुत ज्यादा है। उनका कहना है, कि अगर देशों में संकट जारी रहा तो कच्चे तेल के दाम और बढ़ सकते हैं। वहीं सऊदी अरब के पूर्व तेल मंत्री शेख जाकी यमानी कहते हैं, कि यदि उनके देश में कुछ होता है तो कच्चा तेल 200 डालर से लेकर 300 डालर प्रति बैरल तक जा सकता है।
दामों में उबाल का असर
विश्लेषकों का मानना है कि तेल के दाम बढ़ने का असर भारत जैसे विकासशील देशों के मुकाबले पश्चिमी विकसित देशों पर ज्यादा होगा। पश्चिमी देशों की विकास दर भारत जैसे विकासशील देशों के मुकाबले काफी कम है, जिसके चलते इन देशों की अर्थव्यवस्था तेल के बढ़ते दामों से ज्यादा प्रभावित होगी। कच्चे तेल में आई तेजी से विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी, लेकिन ये देश सब्सिडी के बोझ को विकसित देशों के मुकाबले ज्यादा सहन करने की स्थिति में हैं। विकसित देशों ने अपने यहां बजट घाटे को कम करने के लिए अपनी वित्तीय नीतियों को सख्त किया है। कभी मुक्त बाजार का हिमायती रहा अमेरिका आज आउटसोर्सिंग को बंद करने, इलाज भारत से न कराने की बात करता है। संरक्षणवाद के पीछे वह अपनी अर्थव्यवस्था में सुधार की कोशिशें कर रहा है। विकसित देशों की अर्थव्यवस्था गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रही हैं। जानकार बताते हैं, कि क्रूड तेल के दामों में आई इस बढ़ोतरी के चलते विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं को आर्थिक संकट से बाहर निकलने में देरी हो सकती है।
इनको होगा फायदा
तेल के दाम बढ़ने से कुछ देशों को लाभ भी होगा। इनमें रूस, मैक्सिको और ब्राजील शामिल हैं। तेल के दाम बढ़ने के कारण इस पर होने वाले खर्च में बढ़ोतरी हो जाएगी। साथ ही इसका उपभोग भी कम हो सकता है। इसके अलावा जो देश तेल का आयात करने के बाद उसका निर्यात करते हंै। ऐसे देशों के लाभ में इस बढ़ोतरी के चलते कमी आएगी।
भारत को होगी सबसे ज्यादा तेल की जरूरत
देश में हाइड्रोकार्बन के नए भंडार मिलने के बावजूद आने वाले वर्षों में भारत की विदेशी कच्चे तेल पर निर्भरता बढ़ेगी। तेज आर्थिक विकास के चलते भारत में पेट्रोलियम उत्पादों की खपत भी बढ़ेगी और वर्ष 2025 तक देश अमेरिका व चीन के बाद विश्व का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक देश हो जाएगा। वैसे तो कच्चे तेल के आयात पर भारत को काफी धन खर्च करना पड़ेगा, इसमें भी राहत की बात यह है कि इस दौरान देश रिफाइनरी उत्पादों का एक बड़ा निर्यातक भी बनकर उभरेगा।
भारत के लिए खतरे की घंटी
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा संघ (आईईए) ने भारत में ऊर्जा मांग की जो तस्वीर खींची है, वह कई मायनों में चिंताजनक है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत वर्ष 2030 तक अपनी आवश्यकता का 90 प्रतिशत कच्चा तेल विदेश से खरीदेगा। जाहिर है इस पर अरबों डालर खर्च करने होंगे। कोयले के बारे में कहा गया है, कि 2030 तक इसकी खपत देश में तीन गुना बढ़ जाएगी। सबसे ज्यादा मांग परिवहन क्षेत्र से आएगी। आईईए ने कहा, कि भारत को बिजली क्षेत्र में भारी निवेश करने की जरूरत है, तभी अगले 22-23 वर्षों में देश की 96 प्रतिशत आबादी तक बिजली पहुंचाई जा सकेगी। वर्ष 2005 में मात्र 62 प्रतिशत आबादी को ही बिजली मयस्सर थी। हाल के दिनों में भारत में जो विशाल गैस भंडार मिले हैं, वे भी इसकी गैस की जरूरतों को लंबे समय तक पूरी नहीं कर सकेंगे। आईईए के मुताबिक वर्ष 2030 के बाद गैस को लेकर भी विदेश पर भारत की निर्भरता बढ़ेगी। रिपोर्ट के मुताबिक कुछ दशकों बाद विश्व की कुल ऊर्जा खपत का 45 प्रतिशत केवल भारत और चीन के खाते में जाएगा। तेल आयात के चलते भारत को भले ही भारी-भरकम धनराशि खर्च करनी पड़ रही हो, लेकिन इससे विश्व के कई देशों को फायदा होगा। आईईए ने कहा है कि भारत और चीन में ऊर्जा की मांग बढ़ने से विश्व के कई देशों को अपार फायदा होगा। इससे अन्य देशों के साथ चीन व भारत के द्विपक्षीय रिश्ते पर भी काफी असर पड़ेगा। रिपोर्ट में यह भी कहा है कि भारत व चीन की भारी ऊर्जा मांग को विश्व की सामूहिक चुनौती के तौर पर देखा जाना चाहिए। भारत महज नौ लाख बैरल प्रति दिन उत्पादन करता है। भारत की बढ़ती आबादी और इन आंकड़ों से अंदाजा लगाना आसान हो जाता है कि आने वाले दिनों में भारत दुनिया का बड़ा तेल आयातक देश होगा।
धीमा होगा विकास का पहिया
अमूमन देखा गया कि विकास की रफ्तार तेल के साथ-साथ ताल मिलाती है। विशेषज्ञों का मानना है कि तेल के दाम में 10 डॉलर प्रति बैरल की बढ़त से हिंदुस्तान की जीडीपी 0.5 से एक प्रतिशत तक खिसक जाएगी। भारत की अर्थव्यवस्था जो पिछले कई सालों से हुंकार रही है। इसलिए अब सतर्क हाने की जरूरत है, क्योंकि धीरे-धीरे भारत सरकार, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठन भारत की जीडीपी दर को कमतर करते जा रहे हैं। यह कमी आॅयल के दामों में बढ़ोत्तरी के साथ और कम होने के आसार हैं।
कैसे बढ़ते हैं कच्चे तेल के दाम
क्रूड आॅयल विश्लेषक कर्स्टन फ्रिच कहते हैं, कि अमेरिकी डॉलर की कमजोरी, सर्दी के कहर और आयात बढ़ने या उत्पादन में कमी से क्रूड आॅयल की कीमतों को भारी समर्थन मिलता है। दुनिया के दूसरे सबसे बड़े ऊर्जा उपभोक्ता चीन लगातार इसके आयात में इजाफा कर रहे हैं। डॉलर के कमजोर होने से क्रूड आॅयल दूसरी मुद्राओं में सस्ता पड़ता है, जिससे खरीद में बढ़ोतरी दर्ज की जाती है। इसके अलावा यदि उत्पादक देश जैसे नाइजीरिया, सउदी अरब, लीबिया आदि देशों में किसी तरह की अस्थिरता, तनाव या आंतरिक व बाहरी मसलों पर कुछ उलझनें होती हंै, तो इसके उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इससे तेल की कमी हो जाती है और इसकी कीमतें आसमान छूने लगती हैं।
मुक्त बाजार की ओर बढ़ता भारत
वर्ष 1991 में भारत ने विदेशी निवेश को पाने के लिए तेजी से कदम बढ़ाए। तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकण की नीतियों को अमली जामा पहनाकर देश में औद्योगिक क्रांति के नए दौर का सूत्रपात किया। तब से लेकर अब तक भारत मुक्त बाजार यानी सब कुछ मुनाफे में तब्दील करने की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है। इस पर समय-समय पर सवालों के तीर सरकार पर चले कि जब सब बाजार के हवाले ही करना है, तो सरकार का क्या काम? शिक्षा, मनोरंजन, स्वास्थ्य से लेकर ढांचागत सुविधाओं तक के लिए तो सरकार बड़ी कंपनियों पर निर्भर हो ही गई थी, अब चीनी, तेल, कर आदि की जिम्मेदारी को भी धीरे-धीरे बाजार की ओर खिसकाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। उम्मीद यही की जा रही है कि 2020 तक हम पूरी तरह बाजार के भरोसे होंगे। आम बजट 20011 में जीएसटी और सेवा पर कर का प्रावधान इसके ताजा उदाहरण हैं। तेल को बाजार के हवाले करना और संवेदनशील हो जाता है, क्योंकि यह विकास के पहिए को गति को देने के लिए जरूरी चीज है। अब तक सरकार ने तेल को बाजार के हवाले किया तो है, लेकिन मूल्य वृद्धि की चाबी अपने हाथ में रखी है। इसके सहारे भारतीय आॅयल पॉलिटिक्स में अभी सरकार एक पक्ष बनी हुई है लेकिन हालात जिस तेजी से बदल रहे हैं, उनमें लगातार यह मुमकिन नहीं होगा कि सरकारी वर्चस्व तेल पर बना रह सके। निजी कंपनियों के बढ़ते कारोबार ने नई आर्थिक नीतियों के साथ वह शक्ल तैयार कर दी है, जब भारतीय तेल बाजार पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण के बाहर होगा।
ओपेक की तेल की नब्ज पर पकड़
तेल निर्यातक राष्ट्र संगठन (ओपेक)- 1949 में वेनेजुएला ने संगठन की नींव रखी। पूरी तरह से अस्तित्व में 14 सितंबर 1960 में आया, जब 6 देशों ईरान, इराक, सउदी अरब, वेनेजुएला, कुवैत आदि देशों ने अथक प्रयास किया। यह पेट्रोलियम उत्पादक 12 देशों का संगठन है। इसके सदस्यों में अल्जीरिया, अंगोला, एक्वाडोर, ईरान, ईराक, कुवैत सउदी अरब, नाइजीरिया, लीबिया, वेनेज्वेला, यूएई, कतर, आदि शामिल हैं। सन 1965 से ही इस संगठन का मुख्यालय विएना में है। इंडोनेशिया की सदस्यता समाप्त हो गई है, क्योंकि अब तेल निर्यातक के बजाय आयातक देश हो चुका है। ओपेक का गठन स्वेज नहर विवाद से जुड़ा है।
उथल-पुथल के बीच तेल कीमतें
ओपेक के 12 देशों के अलावा रूस, चीन, ब्रजील, मैक्सिको, यूरोपीय यूनियन, ब्रिटेन, इंडोनेशिया आदि देश भी वैश्विक तेल उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 1960 में ओपेक पूरी तरह से अस्तित्व में आया और 1979-86, 1990, 2000 और 2004 के बाद की गतिविधि पर नजर डालें, तो दिलचस्प बातें सामने आएगीं। वर्ष 1976 में जब तेल उत्पादक देशों ईरान-इराक में युद्ध हुआ, तो तेल कीमतें 15 से 40 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गर्इं। शांति के बाद कीमतें 10 डॉलर पर आ गर्इं। इराक ने जब कुवैत पर आक्रमण किया, तो तेल फिर से 35 डॉलर पर पहुंच गया। एशियाई मंदी, ओपेक देशों की तेल उत्पादन में कटौती, वर्ड ट्रेड सेंटर पर हमला, इराक और वेनेजुएला पर युद्ध के बादल, मैक्सिको की खाड़ी में तूफान, नाइजीरिया का तेल उत्पादन में कटौती करना आदि सभी उथल-पुथलों से तेल कीमतों में कभी सुनामी जैसी लहरें आर्इं, तो कभी ठंडे थपेड़े भी मिले। ईरान, सउदी अरब आदि देशों की तो अर्थव्यवस्था तेल और प्राकृतिक गैस से संबंधित उद्योगों तथा कृषि पर आधारित है। सन 2006 में ईरान के बजट का 45 प्रतिशत तेल तथा प्राकृतिक गैस से मिली रकम से आया था।
युद्ध की राजनीति में तेल का छौंक
क्रूड के प्राइस वार का इतिहास देखें, तो जब-जब युद्ध हुए, या करवाए गए, तेल के दामों ने रफ्तार पकड़ी और तेल उत्पादक, निर्यातक देशों और तेल कंपनियों को अरबों डॉलर का फायदा हुआ व जनता को हरबार लगा चूना। ओपेक के अस्तित्व में आने के बाद इराका-इरान, इराक-कुवैत युद्ध, वेनेजुएला और इराक पर युद्ध के बादलों से तेल ने ऐसी ताल पकड़ी कि 2008 तक 90 डॉलर का आंकड़ा पार कर लिया। हाल ही में ट्यूनीशिया, मिस्र, लीबिया आदि देशों की क्रांति की आग में तेल के दाम भी जल उठे और 120 डॉलर के करीब पहुंच गए। अमेरिका समेत सभी विकसित देशों की आर्थिक स्थिति ज्यादातर तेल, हथियार और शोध पर निर्भर है। अगर युद्ध बंद होंगे, तो इनकी अर्थव्यवस्था दम तोड़ सकती है, इसलिए दुनिया में तनाव होना बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के लिए मुफीद है। अमेरिका पश्चिम एशिया में अपनी पकड़ ढीली नहीं होने देना चाहता। इसके लिए सद्दाम हुसैन की सत्ता को जमींदोज करना, अफगानिस्तान में बमों की वारिस से लाखों बेगुनाहों को हलाक करना और मिश्र, लीबिया, ट्यूनीशिया, यमन में अपनी पसंदीदा सरकारें बनवाते रहना, उसकी तेल बजारों पर कब्जे की रणनीति का हिस्सा रहे हैं। साफ है कि सारे राष्ट्र अपने हितों को सर्वोपरि मानते हैं, और इसीलिए दो देशों के हित जब एक दूसरे से टकराते हैं, तो युद्ध की जमीन तैयार होती है। युद्ध की आग जमीन के नीचे बहते तेल भंडार तक भी पहुंचती है, और उनमें आग लग जाती है। तेल के दाम बढ़ने और तेल-युद्ध के दाम मिलने का यह सिलसिला बीते 6 दशकों की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का सबसे दिलचस्प पहलू रहा है। आने वाले समय में जब तक वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की खोज तेज नहीं हो जाती तेल की राजनीति अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के बीच के्रंद में रहेगी और इसमें पलड़ा उसी का भारी रहेगा, जिसे भौगोलिक स्थिति और पारिस्थतिकी तंत्र का सहयोग मिलेगा, यानी अमेरिका।
कितना उत्पादन, कितना तेल
दुनिया के ताकतवर देशों में जो चकाचौंध है वह गरीब और विकासशाील देशोें के शोषण से आई है। तेल भी इसका उदाहरण है। जी-8 देशों में पूरी दुनिया की 12 प्रतिशत आबादी रहती है। इन देशों ने 2009-10 में प्रति दिन लगभग 24473 हजार बैरल तेल का उत्पादन किया, वहीं उपभोग के मामले में यह देश दुनिया के कुल उपभोग का 37 प्रतिशत इस्तेमाल करते हैं। इसके विपरीत ब्रिक देश दुनिया के कुल तेल उत्पादन में 20 प्रतिशत का योगदान देते हैं और उनका खर्च महज 17 प्रतिशत ही है। तेल का भंडार बचा रह सके इसके लिए जरूरी है कि जितना तेल उत्पादित हो रहा है, उसका कम खर्च किया जाए, लेकिन अभी इसका उलटा हो रहा है। यानी उत्पादन कम है और खर्च ज्यादा।
भारत में तेल
दर्जनों ऐसे देश हैं जो कच्चे तेल का छुटपुट उत्पादन करते हैं। भारत उनमें शामिल है। तेल के उत्पादन, शोधन और वितरण का काम मुख्यत: सरकारी कंपनियां जैसे ओएनजीसी, आॅयल इंडिया लिमिटेड, इंडियन आॅयल कॉर्पोरेशन, गैस इंडिया लिमिटेड, भारत पेट्रोलियम और हिन्दुस्तान पेट्रोलियम आदि हैं, जो मुख्यत: तेल शोधन और वितरण का काम करती हैं। निजी क्षेत्र में रिलायंस पेट्रोलियम भारत में उत्पादन शोधन और वितरण का काम करती है। देश की जरूरत का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा सरकारी कंपनियों से ही आता है।
कहां है विकल्प
धरती के गर्भ में सीमित संसाधन हैं और इन्हीं से हमें काम चलाना होगा। हां, वैकल्पिक संसाधनों का प्रयोग किया जा सकता है, जैसे सोलर एनर्जी, विंड एनर्जी, बायोडीजल आदि। पानी से भी गाड़ियों को चलाने के लिए शोध बड़े पैमाने पर चल रहा है। क्रूड आॅयल जो सीमित है और उसे कभी न कभी तो समाप्त होना ही है, इसलिए हमें इन सारे विकल्पों पर दुगुनी ताकत से शोध और अमल करना चाहिए, ताकि हम इस हरी भरी धरती को सभी जीवों और प्राणियों के लिए जीने की सही जगह बना सकें।
अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) : यह एक स्वतंत्र और कई देशों को मिलाकर बनाई गई संस्था है। वर्ष 1973 के तेल संकट के दौरान इसका खाका खींचा गया। इसका प्राथमिक उद्देश्य तेल के बाजार, ऊर्जा आदि के आंकड़े प्रदान करना आदि था। यह संगठन के सदस्यों को ऊर्जा संसाधनों के बारे में सलाह देने का भी काम करता है। आईईए गैर सदस्य देशों जैसे भारत, चीन और रूस का भी सलाहकार काम करता है। संगठन मूलत: तीन चीजों पर काम करता है, ऊर्जा सुरक्षा, अर्थव्यस्था का विकास, पर्यावरण सुरक्षा। इसके अलावा आईईए अल्टरनेट एनर्जी, और क्लामेट चेंज को सुरक्षित रखने में योगदान देता है।
मुद्रा : इसका लेन-देन अमेरिकी डॉलार में होता है, जो एक देश द्वारा पेट्रोलियम बेच कर प्राप्त की जाती है। तेल उत्पादक ओपेक देशों द्वारा प्रचुर मात्रा में कमाये जा रहे डॉलार की स्थिति, कच्चे तेल के उत्पादन और वितरण पर भी निर्भर करती है।
1973 का ऊर्जा संकट : अमेरिका के इज्रराइल मुद्दे पर कड़क होने से ओपेक ने दक्षिणी देशों को तेल की सप्लाई बंद कर दी। सउदी अरब ने तेल उत्पादन में भयंकर कटौती की। इससे तेल की कीमतों में चार गुना की वृद्धि हो गई। जो अक्टूबर 1973 से मार्च 1974 तक चली। इसके बाद ओपेक देशों में तेल कीमतों में पारदर्शिता लाने के लिए बैठकों का दौर जारी हो गया। ऊर्जा संकट 1970, 1979 और 2000 में एक बार फिर उभरा।

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